अकबर ने प्रयाग का नाम बदला तो तुलसीदास और मध्यकालीन भक्त कवि मौन क्यों हैं?

हिंदी की मध्यकालीन कविता जिसे भक्ति काव्य के रूप में जाना जाता है। इसका चरम उत्कर्ष अकबरी शासन के 50-55 सालों में ही हुआ। तुलसीदास, सूरदास, मीरा, ये सब अकबर के समकालीन हैं और उसके साम्राज्य में निवास करते रचनारत रहे। और यही काल रामकाव्य का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ रामचरितमानस के प्रणयन और कृष्ण की बाललीला के गायन का भी है। मीरा के कृष्ण दीवानी होने का समय भी यही है। यह सब केवल संयोग नहीं।

इन कवियो के साथ ही एक पूरा समूह भक्ति कविता लिख रहा था। जहाँ श्रृंगार की कविता भी भक्ति की ओट में रची जा रही थी। इतिहास गवाह है कि किसी मुसलमान ने नहीं तुलसीदास का जीवन काशी के संस्कृत भक्त पंडो ने त्रस्त कर रखा था। वे अपनी रामकथा अवधी में लिख रहे थे। इस बात से पंडे और पोंगा तत्व परेशान थे। तुलसीदास का कहीं ठहर पाना कठिन था।

मीराबाई को विष राणा जी किस खुशी में पिला रहे थे यह संसार जानता है। अकबर और मुगल राणा पर दबाव डाल रहे थे क्या कि विधवा बहू को विष दे दो। इस मीरा को भक्तो की संगति से अलग करो। मुगल या मुसलमान तो मीरा की भक्ति के विरोध में नहीं थे। मीरा को राजपूतो की भूमि से भागकर वृंदावन और फिर द्वारका की ओर खिसक जाने के पीछे अकबर नहीं था। मीराबाई को ‘मीरा रांड’ जैसा अपमान जनक संबोधन अकबर ने नहीं उसके सगे लोगों ने ही दिया था। मीरा को उसकी भक्ति के पुरस्कार में यही तिरस्कार जनक संबोधन दिया गया है। आप इसकी जांच कर लें।

मीरा खुद को विष दिए जाने। भक्ति से रोके जाने की बात अपने पदो में लिखती है। तुलसी काशी के पंडो से मिली परेशानी पर बोलते हैं । तो अब सवाल यह है कि जो तुलसीदास यह कहते संकोच नहीं करते कि ” मांग के खाइबो मसीत में सोइबो लेबो को एक न देबो को दोऊ” वे अकबर के द्वारा प्रयाग के नाम परिवर्तन पर चुप क्यों हैं। “को कहि सकै प्रयाग प्रभाऊ” की बात कहनेवाले तुलसीदास कहीं नहीं बोलते की शासक उनके प्रयाग का नाम बदल रहा है। क्या प्रयाग का नाम बदलने से तुलसी को तनिक व्यथा न हुई होगी?। चित्तौड़ की बागी विद्रोहिणी मीरा भी इस पर मौन रहती है। क्या प्रयाग उसका तीर्थराज नहीं। वृंदावन का सूरदास चुप रहता है। क्या उसे प्रयाग से सरोकार नहीं? कड़ा मानिकपुर में बैठा भक्त मलूकदास चुप रहता है। क्या वह दुखी न हुआ होगा? या इन सबको अकबरी दरबार से वजीफा मिल गया था? क्या सभी भक्त कवि अपना दाम लगाकर दरबारी हो गए थे? किसी के पास उत्तर हो तो दे!

क्या तुलसी राम के सरनाम गुलाम अकबर से घूस लेकर प्रयाग नाम परिवर्तन पर अपनी कलम और जबान कटवा दिए थे। और वह कुंभनदास जो सत्ता को चुनौती देते हुए तत्कालीन राजधानी फतेहपुर सीकरी न जाने की खुली घोषणा करता है। ‘संतन कौ कहां सीकरी सो काम’ वह भी प्रयाग के नाम परिवर्तन पर मूक मौन है! ऐसा इसलिए है क्योंकि अकबर ने नाम नहीं बदला था बल्कि एक नव निर्माण किया था।

और किसी की भक्ति और धर्म के मामले में अकबरी सरकार की ओर से कोई बाधा न थी। अकबर ने शासन के आरंभिक वर्षो में ही पराजितो पर अपने धर्म में बने रहने के लिए दिए जाने वाले जजिया कर को समाप्त कर दिया था। आगे चलकर अकबर अपनी मां हमीदा बजगम की मौत पर उनका श्राद्ध करता है। अपना मुंडन कराता है। और तर्पण भी करता है। और तो और आगे चलकर मुगल शाहजादो को खतना कराने से भी बरी कर दिया गया था। इस बात के संदर्भ और उल्लेख भी इतिहास ग्रंथो में मिलते हैं। इसपर भी इतिहासकारो को अपना मत देना चाहिए। यह मुगलो का जो भारतीय करण है। यह एक बड़ा कदम था। जिसे समझने और संगमन के लिए एक बड़े निर्णय के रूप में देखना होगा।

जब बादशाह या सम्राट अपने धर्म के विरोधवाली बहुसंख्यक प्रजा के पक्ष में राजकोष पर लगभग 12 से 14 लाख का घाटा सहते हुए जजिया को खत्म कर रहा हो। हिंदू तीर्थयात्रियों पर लगनेवाले ‘तीर्थकर’ को हटा रहा हो, सनातनी पद्धति से अपनी मां का श्राद्ध कर्म कर रहा हो मैं नहीं मानता कि वह एक अनुपम तीर्थ स्थल का नाम बदलने की सोच भी सकता है।

और अगर अकबर ने ऐसा किया होता त़ो मैं यह स्वीकार नहीं करता कि हमारे स्वातंत्र्य चेता तुलसीदास मीरा सूर रहीम रसखान इस मुद्दे पर गूंगे बने रहते। बिना कुछ संकेत किए चुप रहते। अगर तुलसीदास अपने समय के अकाल पर विस्तार से लिखते हैं तो इस तीर्थ राज प्रयाग के नामांतर पर भी बोलते। वे हमारे सभी पूर्वज कवि भीरु समझौता वादी और बिकाऊ नहीं थे।

आज के शासक भरपूर ‘तीर्थकर’ वसूल कर रहे हैं। प्रयाग के कुंभ मेले के लिए अलग से तीर्थ यात्रियो पर बढ़ा कर तीर्थकर लगाया है भक्तो की सरकार ने। साथ ही इलाहाबाद की उस प्रजा पर भी बढ़ा कर टैक्स लगाया गया है जो स्थाई और स्थानीय निवासी हैं।

प्रजा का ध्यान रखना एक प्रतापी कार्य होता है। वह केवल प्रवचन और भाषण से संभव नहीं। अकबर एक प्रजावत्सल सम्राट था। यह मानने न मानने के ऊपर की बात है। अपने आरंभिक शासनकाल में उसने कुछ अराजकतावादी कदम उठाए हैं। लेकिन तब वह स्वायत्त शासक नहीं बन पाया था। एक 13 साल के बालक राजा के द्वारा सम्पन्न हुई नितियो के लिए अकबर के आगे के 50 साल के सुवर्ण और परिवर्तनकारी शासन को रद्दी की टोकरी में नहीं डाला जा सकता।

बोधिसत्व, मुंबई

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