बिरसा मुंडा, आदिवासियत का नेतृत्व – एच के बैरवा

मुंबई : आदिवासी या अनार्य शब्द प्रचलन में तब आया जब विदेशी आर्य भारत में आए तब यहाँ के मूलनिवासियों द्रविड़ों की पहचान आदिवासी या अनार्य के रूप में बनती चली गयी। आदिवासी शदियों से जल जंगल जमीन का मालिक रहा है। उनके कीमती प्राकृतिक उत्पादनों की मलकियत को हड़पने के लिए हर युग में उन्हें विदेशी आक्रांताओं के षडयंत्रो का शिकार होना पड़ा है। धूर्त किस्म के लोगों ने सीधे साधे आदिवासियों को धार्मिक पाखण्डों में उलझाकर कर उनके जल जंगल जमीन को लूटने का षड्यंत्र रचा है।

इसी कड़ी में जब अंग्रेजों का राज आया तो पादरियों ने आदिवासियों के हाथों में बाइबल थमाकर उनके जंगलों से खनिज पदार्थ और कीमती लकड़ियों को लूटा। आज वही कार्य लोकतंत्र में मनुवादी सरकारें कर रही हैं। आज आरएसएस आदिवासियों की मूल पहचान को मिटाने के लिए उन्हें वनवासी कहती है। उनकी मूल संस्कृति को मिटाकर उन्हें हिंदुत्व के दायरे में ला रही हैं। उनके जंगलों में जाकर हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर बनवा रही है, हनुमान चालीसा बंटवाई जा रही है। उन्हीं के वोट से सरकार बनाकर उनके जल जंगल जमीन को छीनकर कॉरपरेट घरानों का कब्जा करवाया जा रहा है।

आदिवासियों की विरासत को बचाने के लिए बिरसा मुंडा का योगदान अतुलनीय है। आदिवासियों के सबसे बड़े आदर्श बिरसा मुंडा हैं उन्हें धरती आभा माना जाता है वे आदिवासियों के भगवान हैं। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था।

भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण के चक्र व्यूह से मुक्ति दिलाने के लिए तीन स्तरों पर उन्हें संगठित करना आवश्यक समझा।

★पहला सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके।

★दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों क आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके।

★तीसरा राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी।

★बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया।

★उलगुलान ! उलगुलान !! उलगुलान !!!

उलगुलान यानी आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष।

आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए उन्होंने अंग्रेजो को लगान देने और उनका हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी फ़ौज के रूप में संघठित हो गए जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सीधा युद्ध छेड़ दिया।

अतः आदिवासियों को भड़काने के आरोप में बिरसा मुंडा को सन 1900 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 2 साल की सजा हो गई। 9 जून 1900 अंग्रेजो द्वारा उन्हें जेल में एक धीमा जहर दिया गया। अंततः मात्र 25 वर्ष की उम्र में उनकी मौत हो गई। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

निष्कर्ष तौर पर हम कह सकते हैं कि बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम की दृष्टि से तत्कालीन युग के एकलव्य और सामाजिक जागरण की दृष्टि से महात्मा ज्योतिबा फूले हैं।

  • H K Bairva जी की वाल से

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