पिछले दिनों अमेरिका में एक मामूली सा गार्ड की नौकरी करने वाले ब्लैक्स जॉर्ज फ्लॉयड के मारे जाने पर, पूरे अमेरिका में हो रोष प्रदर्शन हुआ । अमेरिकी सरकार ने पहलें तो नागरिकों के इस आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया । लेकिन अंततः अमेरिकी पुलिस ने अपने कृत्य के लिए घुटनों बल बैठकर अफसोस जताया औऱ अपने पुलिस ऑफिसर्स द्वारा किये गैर- कानूनी काम व अलोकतांत्रिक आचरण हेतु माफी मांगी।
अमेरिका के इतिहास में यह पहली घटना नही हैं कि उसने अपने नागरिकों के प्रति नश्लीय भेदभाव के लिए सामूहिक रूप से माफ़ी मांगी हो ? 1955 को कामकाजी महिला और सामाजिक कार्यकर्ता रोजा पार्क्स के साथ बस की सीट पर बैठने को लेकर नश्लीय भेदभाव के विरोध से आन्दोलन शुरू हुआ तो फिर रुका नही ।
लंबे संघर्ष के बाद तत्कालीन अमेरिकी सरकार नें जल्द ही इससे निजात पा लिए । अमेरिका ने भेदभाव को समाप्त करके अफर्मेटिव एक्शन नामक आरक्षण लागू किया ताकि ब्लैकस को शासन सत्ता सहित शक्ति के सभी स्रोतों में भागीदारी देकर अमेरिका को आगें बढ़ाया ।
बाद में अमेरिकी संसद नें इस भेदभाव के लिए पूरे ब्लैक समुदाय से यह कहते हुए सामूहिक माफ़ी मांगी कि ” हमारे श्वेत पुरखों में आपके अश्वेत पुरखो के साथ भेदभाव किया था हम उसके लिए शर्मिंदा हैं और सामुहिक रूप में माफ़ी माँगते हैं !
इस बार भी अमेरिकी श्वेत पुलिस कर्मियों ने प्रोटेस्टर्स से हाथ मिलाया, गले लगाया ! दोषी पुलिस वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करके उन्हें जेल पहले ही भेजा जा चुका है।यही है लोकतंत्र की ताकत।जहाँ हाशिए के समाज के लोगो को भी समान मानवीय गरिमा मिलती है।
भारत सहित दुनिया के किसी समाज के लिए भी यह मुमकिन है बशर्ते हम सब भीड़ की जगह नागरिक बनें तथा स्वतंत्रता,समानता, बंधुता, तार्किकता व वैज्ञानिकता जैसे आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्य जिसे गाँधी,नेहरू,अम्बेडकर आदि मनीषियों ने हमारे संविधान का हिस्सा बनाया को पूरी तरह आत्मसात करते हुए जन्म, वंश व जाति-धर्म के मिथ्याभिमान से बाहर निकलकर एक ‘सभ्य इंसान’ बनने को तैयार हों।
इस नश्लीय भेदभाव के कारण हुई हत्या के विरोध सबसे ज्यादा खूबसूरत बात यह थीं कि इस आंदोलन में श्वेत नागरिकों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया उनमें से महिलाओं भी बड़ी संख्या में शामिल रहीं । लेकिन अफ़सोस की भारत के इतिहास में आज तक ऐसा कोई घटना दर्ज नही की गई हैं कि जातीय हिंसा के शिकार हुए दलित आंदोलन में भारत के सवर्ण नागरिकों का भरपूर समर्थन नही मिला !
सवाल उठता हैं महामारी के संकट में जब हर इंसान के अंदर एक ही तरह का डर हैं। वह है कोरोना से मरने का तब क्या भारत के सवर्णों के मन मे भारतीय दलितों और आदिवासियों के प्रति स्वतः स्फूर्ति प्रेम का भाव जगा ? शायद नही ! आज भी जब देश के अधिकांश दलित ,आदिवासी और घुमन्तू जातियों की स्थिति जानवरो जैसी है।
आये दिन उनकी निर्मम हत्या होती हैं ,उनकी बहन बेटियों के साथ सामूहिक दुराचार होतें हैं। लेकिन उनके न्याय के लिए छिटपुट रूप में उनके ही समुदाय के लोग आगे आते हैं। लेकिन सम्पूर्ण भारतीय आन्दोलन करता दिखाई नही देता हैं। क्या हमें अमेरिका इस आंदोलन से सीख नही लेना चाहिए ? कि अमानवीय घटनाओं पर एक साथ खड़े होकर न्याय के लिए लड़ा जाएं .