यह लेख उन लोगों की आँखें भी खोलता है जो JNU के विरोध में है । उन्हें समझ आ जाना चाहिए की JNU के समर्थन में कैसे लोग है और विरोध में कैसे कैसे लोग है।
रघुराम राजन भारत की सबसे बड़ी बैंकिंग संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रह चुके हैं. उन्होंने अपने लिंक्डइन अकाउंट पर एक ब्लॉग लिखा है. इस पोस्ट में उन्होंने बिना किसी का नाम लिए मजबूती से अपनी बात रखी है. उनका ये ब्लॉग अंग्रेज़ी में है, हम आपको उसका हिंदी अनुवाद पढ़वा रहे हैं-
नए दशक का संकल्प
पिछले कुछ दिनों से भारत से आ रही खबरें गंभीर हैं. भारत की सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में से एक JNU में नकाबपोश गुंडों का एक गैंग एंट्री करता है. घंटों तक तबाही मचाता है. छात्रों और फ़ैकल्टी पर हमला करता है. और पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगती. हमलावरों की पहचान अभी तक साफ नहीं हुई है. ये जरूर साफ है जिनपर हमला हुआ, उनमें से कई एक्टिविस्ट थे. लेकिन न तो सरकार और न ही पुलिस ने इसमें हस्तक्षेप किया. ये सब देश की राजधानी में हुआ है, जहां हर कोई हाई अलर्ट पर होता है. जब देश के टॉप विश्वविद्यालय युद्ध के मैदान बन जाएं, तब सरकार पर विरोध को दबाने की कोशिश के आरोप सच लगने लगते हैं.
.(फोटो: पीटीआई)
नेतृत्व पर लांछन लगाना बहुत आसान है. लेकिन हम जैसे महान और ऐतिहासिक लोकतंत्र में हमारी, यानी कि आम जनता की भी जवाबदेही है. नागरिकों ने ही नेताओं को जिम्मेदारी दी है और उनके विभाजनकारी एजेंडे को चुपचाप मान लिया है. उन्होंने हमारी चुप्पी को अपना आदेश बना लिया है. हममें से कई लोग इस उम्मीद में थे कि वे आर्थिक मोर्चे पर ध्यान देंगे. हममें से कई उनके भाषणों से सहमत भी हुए. जिसने हमारे अपने पूर्वाग्रहों को और खतरनाक बना दिया. हममें से कई लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. उन्हें लगा कि राजनीति किसी और की समस्या है. हममें से कुछ आलोचना करने से डरे, क्योंकि आलोचना करनेवालों के साथ जो हुआ, वो उदाहरण बन गया. लोकतंत्र सिर्फ एक अधिकार नहीं है, बल्कि ये एक जिम्मेदारी भी है. हमारे गणतंत्र को सुरक्षित रखने का दायित्व. सिर्फ चुनाव के दिन नहीं बल्कि हर एक दिन.
सौभाग्य से, भारत से आ रही खबरें उत्साहजनक भी रही हैं. जब अलग-अलग पंथों के युवा साथ में मार्च करें, हिंदू-मुस्लिम कंधे से कंधा मिलाकर तिरंगे के पीछे चलें. राजनेताओं द्वारा अपने फायदे के लिए बनाए गए मतभेदों को नकारते हुए. तब वे बताते हैं कि हमारे संविधान की आत्मा अभी भी ज़िंदा है. जब प्रशासनिक सेवा के अफसर इसलिए अपनी ड्रीम जॉब्स छोड़ दें क्योंकि उन्हें लगा कि वो ईमानदारी से अपना काम नहीं कर पाएंगे, तो वो आज़ादी के लिए बलिदान देने वाले हमारे पूर्वजों की याद दिलाते हैं. जब एक चुनाव आयुक्त अपनी फैमिली के साथ हो रहे उत्पीड़न के बावजूद निरपेक्ष होकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे, तब ये बात मजबूत होती है कि ईमानदारी और सत्यनिष्ठा अभी खत्म नहीं हुई है. जब मीडिया के कुछ लोग अपने साथियों के सरकार के सामने झुकने के बाद भी, सच को सामने लाने के लिए काम करते हैं, वो गणतंत्र के एक ज़िम्मेदार नागरिक का मतलब समझाते हैं. और, जब एक बॉलीवुड अभिनेत्री अपनी आनेवाली फ़िल्म के रिस्क पर होने के बावजूद JNU अटैक के पीड़ितों से मिलकर अपना साइलेंट प्रोटेस्ट दर्ज कराती है. वो हमें ये सोचने के लिए प्रेरित करती हैं कि क्या कुछ दांव पर लगा हुआ है.
कन्हैया कुमार ने JNU में छात्रों को संबोधित किया था. उन्हें विपक्षी ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का सरगना बताते हैं.(फोटो: पीटीआई)
इन बातों से प्रभावित न होने के लिए कुटिल होना जरूरी है. इन लोगों ने अपने काम से बताया है कि सत्य, आज़ादी और न्याय सिर्फ बड़े शब्द नहीं है, बल्कि आदर्शों के लिए बलिदान जरूरी है. वो उस भारत के लिए आज लड़ रहे हैं जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपनी जान दी थी. वो आज़ादी के लिए तो मार्च नहीं कर पाए, लेकिन आज उसे बचाने के लिए कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. वो रवींद्रनाथ टैगोर के सपनों के देश को सच में बदलने की कोशिश कर रहे हैं.
26 जनवरी को 70 साल हो जाएंगे, जब देश ने आदर्शों और उदारता से भरे संविधान को अपनाया था. हमारा संविधान परफेक्ट नहीं था, लेकिन ये पढ़े-लिखे पुरुषों और महिलाओं के द्वारा बनाया गया था, जिन्होंने विभाजन की भयावहता देखकर और भी एकीकृत भविष्य बनाने का प्रण लिया था. वो समझते थे कि देश कहीं बेहतर के लिए सक्षम था, लेकिन कुछ आत्मघाती ताकतें भी बाहर आ सकतीं है. इसलिए उन्होंने एक ऐसा ड्राफ्ट तैयार किया जो हमारे अंदर साझा लक्ष्य और गर्व की भावना जगाए रखे.
नए दशक में हमारे भीतर वो साहस बरकरार रहे, इससे बेहतर संकल्प क्या ही होगा? आइए, हम भारत को सहनशीलता और विनम्रता का चमकदार उदाहरण बनाने के लिए साथ मिलकर काम करें, जिसकी कल्पना हमारे पुरखों ने की थी. थकी हुई दुनिया में मशाल की तरह. नए दशक में यही हमारा कर्तव्य होगा.