इस सवाल से टकराए बगैर भारत में वास्तविक लोकतंत्र नहीं आ सकता. इस सवाल से किनारा करने की बजाय इसे समझने की ज़रूरत है । यह भी समझने की ज़रूरत है की इससे आज़ाद होना क्यों ज़रूरी है ? इसे पिछले दिनो घटी एक घटना से समझ सकते है , एक बच्ची ने इस इस लिए ख़ुद को आग लगा ली क्योंकि घर में एक ही रोटी थी जो उसके भाई ने खा ली , भूख से परेशान हो कर लड़की ने आग लगा ली , अस्पताल ले गए पर बचा नहि पाए।
सबसे दुखद यह रहा कि लड़की के पिता ने कहा की क्या कर सकते है भगवान की यही मर्ज़ी थी । वह अपने अधिकार को नहि जानता अपने हक़ को नहि जानता । क्योंकि उसे बता दिया गया है सब उपरवाले की मर्ज़ी होती है ।
अब सवाल यह आता है की अख़िर क्यों लोग आज़ाद नहि होना चाहते इन सबसे । अमीर , ग़रीब आम आदमी सभी के अपने अपने कारण है । विभिन्न रूपों में ऐसी सैकड़ों प्रथाएं अलग-अलग स्थानों में जारी हैं. आज जिस तीव्र गति से दलित-बहुजन आंदोलन की वैचारिकी विभिन्न संचार माध्यमों खासकर डिजिटल और सोशल मीडिया के जरिए जन-जन तक पहुँच रही है, फिर भी यह सब क्यों जारी है ?
जब राज्य (सरकार) भारत के संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को लागू करने के लिए आगे बढ़ता है और इन प्रथाओं पर पाबंदी लगाने की कोशिश करता है, तो भी लोग इन बदलाव को स्वीकार नहीं करते, बल्कि कई बार तो बदलाव के विरोध में खड़े हो जाते हैं. आखिर वे कौन-सी वजहें हैं, जिनकी वजह से लोग मानसिक गुलामी से आजाद होना नहीं चाहते?
सवर्णों की बातों को समझा जा सकता है, जिसके तहत वो जाति-धर्म व्यवस्था का समर्थन करते हैं. सवर्ण जाति के व्यक्ति को शायद ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व वाले समाज में उसका सामाजिक विशेषाधिकार समाप्त हो जाएगा, वहीं ग़ैर-सवर्ण जाति के व्यक्ति को यह डर हो सकता है कि नए समाज में उनकी स्थिति कहीं और भी ख़राब न हो जाए. कुल मिलकर परम्पराएँ लोगों में स्थिरता और सुरक्षा की भावना का संचार करती हैं, उन्हें लगता है आपसी रिश्ते ख़राब हो जाएँगे, अलग थलग पड़ जाएँगे ,शायद इसलिए लोग इनको आसानी से छोड़ना नहीं चाहते.
एक समस्या यह भी है की आज़ादी के ६० सालों के बाद भी समाजिक कार्यकर्ता और उनके संगठन अभी भी सांस्कृतिक ,रोटी और शिक्षा के मुद्दे से बाहर नहि निकल पा रहे है । उनका कार्य क्षेत्र आर्थिक स्थिति, शिक्षा और रोटी तक ही सीमित हो रहा है । वैचारिक जागरुकता के लिए लोग आगे नहि चाहते , इसका कारण यह भी है की यह मुश्किल रास्ता है ।
बहुजन समाज का भविष्य अस्थिर, अराजक, अनिश्चित, असुरक्षित न दिखाई दे शायद इसलिए बाबा साहेब आंबेडकर भविष्य के भारत की कल्पना करते हुए इतिहास का सहारा लेते हैं और ‘बौद्धमय भारत’ की बात करते हैं.एक ऐसा भारत जब भारत विश्व गुरु था ।
इन सब उपायों के अलावा आंबेडकर स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के साथ-साथ करुणा, मैत्री, प्रज्ञा, शील जैसे बौद्ध दर्शन के मूल्यों की भी बात करते हैं, ताकि उनके सपनों का जातिविहीन भारतीय समाज आपस में बँधा रहे, अराजकता की तरफ़ न जाए.
परंतु बुद्ध और अम्बेडकर के बारे में इतनी ग़लत भ्रांतियाँ फैला दी गई है की बहुत से बहुजन समाज के लोग इनका नाम सुनते ही विरोध में खड़े हो जातें है । बुद्ध की बात आते ही उन्हें लगता है की उन्हें उनके धर्म के ख़िलाफ़ भड़काया जा रहा है ।उन्हें यह समझा दिया गया है की इससे समाज और देश का नुक़सान है ।इसलिए बहुजन समाज की बहुत सी जातियाँ आज भी अम्बेडकर ,फुले और बुद्ध के विचारों से दूरी बनाए हुए है ।जिसकी वजह से आदर्श भारत देश बनने में देरी हो रही है ।
बिल्कुल सही समीक्षा की गयी है। इसके मुख्य कारण में हमारे समाज की स्तरीय शिक्षा का अभाव है। सत्ता पर काबिज लोग कुत्सित विचारधारा के वशीभूत होकर, बहुजन समाज के लिए संविधान की भावना के अनुरूप वैज्ञानिक सोच विकसित करने के बजाय, शिक्षा संस्थानों से लेकर सामाजिक-संस्कारों, धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा मीडिया के माध्यम से ढोंग, कर्मकांडों को बढ़ावा देकर,जानबूझकर गलत अवधारणा परोसकर, भोले-भाले समाज को गुमराह करने में कामयाब हैं। समाज के सामने कपोल-कल्पित कथाओं को सच्चे व विश्वसनीय साहित्य के रूप में पेशकर परमार्थ तथा स्वर्ग-नरक की बातें करके भ्रम में कर रखा है। सही तथ्य सामने आता ही नहीं, जिससे गलत परम्परायें हावी होती जा रहीं हैं। लोग बिना किसी उद्देश्य, केवल परम्परा निर्वाह करना अपना दायित्व समझने लगे हैं। पाठ्य-पुस्तकों से इतर खोज-बीनपूर्ण सच्चा इतिहास संकलित करके, उस पर प्रकाश डालने, प्रचार-प्रसार करने के साथ वैज्ञानिक सोच विकसित करने हेतु सामाजिक जागरूकता लानी होगी; तभी उन्हें अपनी गुलामी का अहसास होगा, फिर खुद-बखुद गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को उतावले हो जायेंगे।
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बिलकुल सही कहा आपने
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बिल्कुल सही समीक्षा की गयी है। इसके मुख्य कारण में हमारे समाज की स्तरीय शिक्षा का अभाव है। सत्ता पर काबिज लोग कुत्सित विचारधारा के वशीभूत होकर, बहुजन समाज के लिए संविधान की भावना के अनुरूप वैज्ञानिक सोच विकसित करने के बजाय, शिक्षा संस्थानों से लेकर सामाजिक-संस्कारों, धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा मीडिया के माध्यम से ढोंग, कर्मकांडों को बढ़ावा देकर,जानबूझकर गलत अवधारणा परोसकर, भोले-भाले समाज को गुमराह करने में कामयाब हैं। समाज के सामने कपोल-कल्पित कथाओं को सच्चे व विश्वसनीय साहित्य के रूप में पेशकर परमार्थ तथा स्वर्ग-नरक की बातें करके भ्रम में कर रखा है। सही तथ्य सामने आता ही नहीं, जिससे गलत परम्परायें हावी होती जा रहीं हैं। लोग बिना किसी उद्देश्य, केवल परम्परा निर्वाह करना अपना दायित्व समझने लगे हैं। पाठ्य-पुस्तकों से इतर खोज-बीनपूर्ण सच्चा इतिहास संकलित करके, उस पर प्रकाश डालने, प्रचार-प्रसार करने के साथ वैज्ञानिक सोच विकसित करने हेतु सामाजिक जागरूकता लानी होगी; तभी उन्हें अपनी गुलामी का अहसास होगा, फिर खुद-बखुद गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को उतावले हो जायेंगे।
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