ये हैं 88 वर्षीय दिल्ली विवि के पूर्व प्रोफेसर पी डी खेरा सर। 1982 में अचानकमार (छ.ग.) स्थित बैगा जनजाति के समाजशास्त्रीय अध्ययन हेतु आये थे। इनके समूह के बाकी सब तो वापस चले गए, खेरा सर यही रह गए.उन्हें उस क्षेत्र के आदिवासी बच्चे मोहा गए। उन्हें उन बच्चों को पढ़ाना, सिखाना ज्यादा जरूरी लगा। उन्होंने परिवार, नौकरी, दिल्ली सब छोड़ दिया! वे वापस गए ही नही।
उन्होंने एक झोपड़ी बनाकर वहां छोटे छोटे आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उन्हें वे हैण्डपम्प पर नहलाते, कंघी करते, नाखून काटते और तैयार करते। इसी तरह वे विगत 36 वर्षों से अनवरत यही कर रहे हैं। आज भी वे बस में बैठकर दो घाट पारकर छपरवा मिडिल स्कूल में बच्चों को पढ़ाने जाते हैं। उनके अंग्रेजी शिक्षण से बैगा आदिवासी बच्चों के अंग्रेजी में अच्छे अंक आ रहे हैं। वे लमनी गांव में रहते हैं और शाम को बेरियर के पास बच्चों को चना, मुर्रा बांटते और उनके साथ जीते मिल जाते हैं।
ऐसी कथाएं और लोग मिथकीय पात्र होते हैं जिनका लोग आस्थावश पूजन करते हैं पर गांधीवादी प्रोफेसर खेरा प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जो किंवदंतियों से परे हैं। कहते हैं एक उठा हुआ मनुष्य ही देवता होता है। प्रोफेसर खेरा को में यही कहूंगा। श्रद्धा व्यक्त करने शब्द नहीं हैं मेरे पास भावुकता हावी हो गई है। मैं भी पिछले 18 वर्षों से जनजातीय, वन क्षेत्रो में ही शिक्षण कर रहा हूँ , बस्तर से सरगुजा तक। कभी कभी संसाधनों के अभाव में काम करते हताशा हो जाती है तब प्रोफ़ेसर खेरा जैसे व्यक्तित्व का स्मरण ऊर्जा प्रदान करता है।
प्रोफेसर खेरा को नमन… वंदन ..सलाम
पीयूष कुमार जी की वॉल से साभार
(तस्वीर और कुछ सूचनाएं प्राण चड्ढा जी के वाल से साभार)