बीबीसी से निकाले जाने के बाद छलका दलित पत्रकार मीना कोतवाल का दर्द..

मैं और बीबीसी- 2

ऑफ़िस के कुछ दिन ट्रेनिंग में ही बीते. जब तक ट्रेंनिंग थी तब तक तो सब कुछ कितना अच्छा था. ऑफ़िस के कई लोग आकर बताते भी थे कि ये तुम्हारा हनीमून पीरियड है, जिसे बस एंजॉय करो.

ऑफ़िशियल ट्रेनिंग में अभी कुछ दिन का समय था इसलिए ऑफ़िस में कई अधिकारी, संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हमसे मिलने आते रहते थे. इसी तरह एक बार ऑफ़िस के वरिष्ठ पत्रकार हमसे हमारे परिचय के लिए आए थे. पहले उन्होंने अपना परिचय दिया और फिर हमसे एक-एक कर हमारा परिचय लिया. जब हम सब अपना परिचय दे रहे थे, तब वे हमारे साथ जॉइन की गई और एक जाने-माने मीडिया संस्थान से आई एक नई सहयोगी के लिए कहते हैं कि अरे आप को कौन नहीं जानता. आपके लिए तो यहां कई फ़ोन आए थे. हम सब एक दूसरे की शक्ल देखने लगे, तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने लगता है कुछ गलत बोल दिया और वे बात बदलने लगे. शायद उन्होंने सबके सामने वो बोल दिया था जो सबको बताने वाली बात नहीं थी.

शाम को जब घर जाती तो परिवार वालों की आंखों में हजारों सवाल होते. कैसा ऑफ़िस है, कैसा लग रहा है, क्या काम है आदि आदि. उन्हें इन सबका जवाब देना मेरे लिए आसान था. लेकिन एक सवाल जिसका जवाब तो आसान था पर वो सवाल मुझे कई और सवाल सोचने पर मजबूर कर देता. वो सवाल था, ‘ऑफ़िस में तो AC ही लगा होगा ना, धूप में काम तो नहीं करना पड़ता? बिल्कुल मैम साहब की तरह कुर्सी पर बैठ कर काम होता है ना?’

कितनी मासूमियत थी इन सवालों में, जो मुझे आज भी याद है. लेकिन एक मजदूर परिवार के घर में ये सवाल कोई आम नहीं था, जहां काम करते समय उन्हें AC तो दूर खाना खाने के लिए छाया भी नसीब नहीं होती थी.

जब पापा को इन सवालों के जवाब हां में मिलते तो वो एक ठंडी आह भरते. मुझे याद है, जब हम छोटे थे तो वो हमें बताते थे कि कैसे उन्होंने कई बार हरे पत्ते और पता नहीं क्या-क्या खाकर अपना बचपन निकाला है. मुझे पढ़ाना ही उनके लिए एक जंग से कम नहीं था. लेकिन फिर भी उन्होंने कभी हम भाई-बहनों से पढ़ने की जिद्द नहीं की. उनका कहना था कि तुम लोगों को जहां तक पढ़ना है पढ़ो क्योंकि मैं सिर्फ़ तुम्हें पढ़ाने के लिए पैसा लगा सकता हूं. बाकि और मदद नहीं कर सकता. क्या पढ़ना है, कैसे पढ़ना है इसके बारे में नहीं बता सकते थे क्योंकि वो कभी स्कूल नहीं गए, जिसका मलाल उन्हें आज तक है.

खैर, उनके इस तरह के सवाल पूछने इसलिए भी वाज़िब थे क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि एक पत्रकार का काम क्या होता है. उनके लिए टीवी पर आने वाला ही केवल पत्रकार है.

कुछ दिनों बाद ललित हॉटेल में हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई. और इस तरह हमारी ट्रेनिंग लगभग पूरे महीने चली, जिसके ट्रेनर ब्रिटिश थे. इनका अपना परिचय देने का भी अलग तरीका था और हमसे लेने का भी. ये खेल खेल में परिचय लेते. ये जो हमें ट्रेनिंग में सीखाते व्यवहार में भी उसका पालन करते थे. पहले दिन ही इन्होंने भी बताया था कि आप सभी मुझे और मेरे सहयोगी को नाम से बुला सकते हैं. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कौन क्या है, किसका क्या बैकग्राउंड है या किसको कितना आता है. वो हमारे लिए कोई मैम और सर नहीं थे. अगर कोई बोल भी देता, तो वो सुनना ही पसंद नहीं करते थे. जब तक उन्हें उनके नाम से ना बुलाया जाए वे जवाब नहीं देते थे.

वे दोस्त की तरह हमें सीखाते और समझाते थे. मुझे इंग्लिश अच्छे से नहीं आती थी और उन्हें हिंदी नहीं आती थी. फिर भी उनके सामने टूटी-फूटी इंग्लिश बोलने में डर नहीं लगता था क्योंकि वो आपको ये एहसास नहीं करवाते थे कि आप किसी से कम हो. उनके इस व्यवहार से आज भी एक अपनापन बना हुआ है, वे जब भी दिल्ली आते हैं तो मिलने के लिए बुलाते हैं.

To be continued…

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