लडकों को तो बस मौका मिलना चाहिए -डॉ.रूप रेखा वर्मा

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लखनऊ विश्विद्यालय कि पुर्व वाइस चांसलर रह चुकी एवं नारीवादी चिन्तक प्रो. रूप रेखा वर्मा जी द्वारा “महिला पहचान” पर व्याख्यान दिया गया| उनके द्वारा कही गई बातो को आज सभी को समझने की जरुरत है क्यों की हम अक्सर महिला विमर्श के मुद्दे पर भटक जाते है यह मान लिया जाता है महिला जितना पुरुष के तरह बनने की कोशिश करेगी उतना ही उनका सशक्तिकरण होगा | तो आईये कुछ मेरे भी व्यक्तिगत अनुभव के साथ इस बात को समझने की कोशिश करते है कि भावनात्मक और आचरण के तौर पर पुरुष किन समस्याओ से जूझ रहा होता है –

मै पुरुष हूँ” जब मेरा जन्म हुआ तो घर में सभी ने खूब ख़ुशीया मनाई होगी, आखिर घर में वंश बढ़ाने और पितरो को तारने वाले ने जो जन्म लिया था | उस समय तो मै खुश नहीं हो सकता था क्यों की मै न जानता था की पुरुष एवं महिला होना क्या होता है! ये पैमाने तो मेरे आने से पूर्व ही निर्धारित थे सो जानने के बाद खुशी होना लाजमी है बिना कुछ कर्म किये ही यह सम्मान प्राप्त हुआ था |

“मै पुरुष हूँ” घर में मुझे ऐसा कोई काम नहीं दिया गया या दिया जाता है जो महिला के लिए निश्चित है ये दूसरा अवसर था ख़ुश होने का, घरेलु कामों से विरासत में मुझे झुटकारा जो मिल गया था साथ ही बाहर आने जाने की आजादी भी मिली थी |

लेकिन और भी चीजे मिली थी मुझे विरासत में जैसे की मै फूट फूट के रो नहीं सकता , शर्मीला नहीं हो सकता , चटपटे या खट्टी चीजे खा नहीं सकता क्योकि ये सब करने पर मै पुरुष की श्रेणी से बाहर का समझा जाऊंगा, ऐसा रिवाज है तो सख्त बने रहना मुझे विरासत में सिखाया गया |

ये सब चीजे मुझे विरासत में मिली क्यों की मेरा दोष इतना था कि जन्म के समय मुझे एक “बच्चा” नहीं बल्कि एक “पुरुष” समझा गया था |
यह “पुरुष” जब पढने लिखने के दौरान महिला विमर्श के मुद्दे से परिचित होता है वो तमाम चीजे जो उसे विरासत में मिली थी उन पर दुःखी होने लगता तब वह निश्चय करता है कि अब संवेदनशील बनेगा लेकिन संवेदनशील बनना उसके लिए एक जटिल कार्य था |

एक पुरुष और संवेदनशील कैसे हो सकता है? यह तो उसकी प्रकृति नहीं है | बहरहाल अब वह संवेदनशील बनने की कोशिश करता है | घर के कामो में हाथ बटाने की कोशिश करता है तो माँ ने कहती है , ये तुम्हारा काम नहीं है बहन बोलती नहीं माँ, भैया किसी और के लिए अभी से घर के कामो में रूचि दिखा रहे है ताकि शादी के बाद उन्हें कोई कुछ कह न सके |

यह पुरुष अगर बाहर संवेदनशीलता दिखलाते हुए किसी बुजुर्ग महिला की मदद करे तो उसे खूब आशीर्वाद मिलता है लेकिन हम उम्र किसी महिला की मदद कर दे तो यह कितना सामान्य लिया जायेगा उन महिलायों द्वारा इसकी बानगी इसं शब्दों में देखी जा सकती है अरे लड़का है “लडको” को तो बस मौका मिलाना चाहिए, because “men will be men” ये कैसे सुधर सकते है?
आशय और निष्कर्ष के तौर पर यह कहा गया कि जो भावनाए तथा आचरण ‘पुरुष को पुरुष’ एवं ‘महिला को महिला’ बनाए रखने में परपरागत रूप से थोप दी गयी है उनसे ऊपर उठने की है परम्परा से हट कर जो बतलाव हो रहे है उन्हें स्वीकार करने की है
इसलिए यह आवश्यक है कि महिला विमर्श और पुरुष विमर्श दोनों साथ-साथ चले तभी समाज में महिला गैर बराबरी की समस्या से निदान पाया जा सकता है ।

सतीश खरवार की वाल से…

2 Comments

  1. Prakash Saroj जी ‘मिलाना’ की जगह ‘मिलना’ होना चाहिए था।
    ये टाइपिंग एरर है कृपया इसे संशोधित करे।
    साथ ही ये विचार प्रो. रूप रेखा जी के विचारों के मूल भावना को केंद्र बनाते हुए अपने निजी अनुभव के साथ मैने लिखा है।
    अक्षरश: रूपरेखा जी ने ऐसा नही बोला था।
    तो मुझे लगता है उनके नाम को टाइटल के रूप में न लिखते हुए….कुछ और होना चाहिए था।

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