उत्तर प्रदेश की राजनीति में दिलचस्प मोड़ आ रहा है. खास तौर पर कांग्रेस को लेकर जनता में उत्सुकता बढ़ रही है. प्रियंका गाँधी वाड्रा को पूर्वी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के वाहक बने ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर का प्रभारी बनाने से लोगों में खास तौर पर युवाओं में कांग्रेस के प्रति दिलचस्पी देखने को मिल रही है. जहाँ कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के जरिए खुद को इंदिरा गाँधी के सर्वसमावेशी नेतृत्व वाले दौर में ले जाने की कोशिश की है, तो दूसरी तरफ़ ज्योतिरादित्य सिंधिया को कुर्मी और ओबीसी वोटरों को लुभाने के लिए प्रोजेक्ट किया गया है.
कांग्रेस के रणनीतिकारों की मानें तो शायद कांग्रेस को इस बात का एहसास हो चुका है कि उत्तर प्रदेश में ओबीसी में गैर-यादव और दलितों में गैर-जाटव मतदाताओं में कुर्मी और पासी, वाल्मीकि जैसी बड़ी जनसंख्या वाली जातियां ही कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उबार सकती हैं, जो कभी इनका मजबूत वोट बेस हुआ करती थीं. इन जातियों के साथ आने के बाद ही मुसलमान कांग्रेस के प्रति झुकेगा.
वैसे तो कांग्रेस ने राम नरेश यादव को मुख्यमंत्री बनाकर कभी यादवों को अपने साथ जोड़ने का काम किया था लेकिन 90 के दशक में मुलायम सिंह यादव के उभार के बाद यादव मतदाता समाजवादी पार्टी के साथ हो लिए. यही हाल दलितों में जाटवों का बसपा के साथ है. दोनों जातियां अपनी अपनी पार्टियों बल्कि अपनी जाति के नेता के साथ मज़बूती से खड़ी है. हालाकि दोनों पार्टियों सपा और बसपा का गठबंधन हो जाने से अन्य जातियां भी बीजेपी के ख़िलाफ़ लामबंदी में इनके साथ आकर्षित होती दिख रही हैं.
लेकिन गठबंधन में सीटों का बंटवारा हो जाने से इनकेचुनावी नेताओं में भगदड़ मचने की सम्भावना ज्यादा है. सीमित सीटें होने से चुनाव की तैयारी में लगे अधिकांश नेता गठबंधन से टिकट न मिलने की स्थिति में किसी अन्य पार्टी से टिकट की जुगाड़ में लगे हैं. ऐसे नेताओं को कांग्रेस से बेहतर विकल्प दिख रहा हैं. खास तौर पर सपा-बसपा और भाजपा से उपेक्षित जातीय नेता जो अपने आपको अब तक उपेक्षित व ठगा महसूस कर रहे थे, वे कांग्रेस में पनाह ढूंढ रहे हैं.
उदाहरण के तौर पर देखें तो बहराइच की बीजेपी सांसद सावित्री बाई फुले, जिन्हें पहले बसपा ने टिकट का ऑफर देकर बीजेपी से बगावत करने का अंदर ही अंदर समर्थन किया लेकिन बीजेपी छोड़ने के बाद बसपा ने उन्हें पार्टी में लेने से मना कर दिया. फिर अखिलेश यादव ने आश्वासन दिया कि समाजवादी पार्टी आपको टिकट देगी, लेकिन गठबंधन होने के बाद फूले अखिलेश यादव से कई बार मिलीं, लेकिन चर्चा है कि मायावती के दबाव के चलते अखिलेश ने भी फूले को टिकट देने में असमर्थता जताई. हो सकता है कि अखिलेश यादव ने खुद ही मान लिया हो कि सावित्रीबाई फुले को पार्टी में लाने से मायावती नाराज हो सकती हैं. राजनैतिक ठगी का शिकार हुई पासी समुदाय की नेत्री सावित्री बाई ने आखिरकार कांग्रेस का दामन थाम लिया. यही हाल फतेहपुर में कुर्मी समुदाय नेता राकेश सचान का है. समाजवादी पार्टी में उपेक्षा का शिकार हो रहे सचान भी कांग्रेस में शामिल हो गए.
सवाल यह उठता हैं कि मोदी-योगी की जोड़ी और अमित शाह की जातीय गणित की रणनीति में क्या कांग्रेस अपने पुराने वोटरों को लुभा पाएगी? 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में यही फार्मूला बीजेपी ने अपनाया था और 2017 के विधान सभा चुनाव तक यह बरकार रहा, लेकिन बीजेपी ने इन दोनों बड़ी जातियों को धोखा दिया है. दलितों की दूसरी सबसे बड़ी जाति पासी को केंद्रीय मन्त्रिमण्डल में शामिल नहीं किया, जिसे लेकर पासियों में खासा नराजगी हैं.
कांग्रेस के दिनों को याद करके पासियों के बुजर्ग हो चुके नेता कहते है कि कांग्रेस के समय में पासियों को पर्याप्त संख्या में भागीदारी मिलती थी. लेकिन 80 के दशक में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहे धर्मवीर के नेतृत्व में बहुमत में आई कांग्रेस ने दलित मुख्यमंत्री स्वीकार न कर पाने की गलती की और यही बात कांग्रेस को गर्त में लेकर चली गईं. इस समस्या को लेकर कांग्रेस नेतृत्व पुनः सक्रियता दिखा रहा है. लेकिन बसपा के साथ जुड़े हुए इन दलित मतदाताओं को विश्वास में लेने के लिए कांग्रेस को कोई बड़ा कदम उठाना पड़ेगा.
प्रियंका गांधी कांग्रेस के प्रदेश ढांचे में बुनियादी फेरबदल कर रही हैं. लेकिन उनकी समस्या यह है कि कांग्रेस के मौजूदा ढांचे में कमजोर जातियों के ऐसे नेता हैं ही नहीं, जिन्हें वे महत्वपूर्ण स्थान दे सकें. कांग्रेस के मौजूदा नेता पिछले दो दशक में इन जातियों से कट चुके हैं. इस वजह से वे ऐसे नेताओं को आगे करने के प्रियंका के प्रोजेक्ट को पूरा कर पाने की स्थिति में भी नहीं हैं.
फिर जो बीमारी कई दशक पुरानी है, वह एक झटके में ठीक भी नहीं हो सकती. लेकिन सावित्रीबाई फुले और राकेश सचान को कांग्रेस में लेकर प्रियंका गांधी ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं. यूपी में कांग्रेस का चेहरा बदलने वाला है.
(लेखक मास कम्युनिकेश के शोधार्थी हैं.)