पिछले कई सालों से एक हेडलाइन अखबारों और चैनलों और अब वेबसाइट पर हर साल गर्मियों के महीने में आती है. खबर आती है कि 12वीं में लड़कियों ने बाजी मारी. और फिर खबर आती है कि 10वीं में लड़कियों ने लड़कों को पीछे छोड़ा.इस साल भी यही हुआ. सीबीएसई के 12वीं बोर्ड में टॉप तीन में से दो स्थान पर लड़कियां हैं. इस साल की ओवरऑल टॉपर लड़की है.
दसवीं में टॉप पोजिशन को चार स्टूडेंट्स ने शेयर किया है. उनमें से तीन लड़कियां हैं. हर साल की तरह इस बार भी लड़कियों का पास परसेंटेज ज्यादा है.
स्कूली और शुरुआती शिक्षा में इतना आगे है लड़कियाँ लड़के कहीं नहीं टिकते ।पर इसके बाद कहाँ ग़ायब हो जाती है लड़कियाँ ।
आईआईटी ,आईआईएम जैसे संस्थानो में इनकी भागीदारी १०% भी नहीं पहुँचती, सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं की स्थिति देखिए , भारत में कुलपति के पदों पर देखिए , प्राइवेट कम्पनीज़ के उच्च पदों पर देखिए कितनी संख्या है न के बराबर ।
12वीं और 10वीं के रिजल्ट को साथ रखकर देखें, तो क्या तस्वीर बनती है? यही न कि लड़कियां जब स्कूल में होती हैं, तो पढ़ने-लिखने में अव्वल होती हैं, लेकिन उसके बाद उनके साथ ऐसा कुछ होता है कि टॉप के पदों पर वे नहीं पहुंच पाती हैं?
टॉपर बेटियों के टॉप पर न पहुंच पाने के कुछ संभावित कारण ये हो सकते हैं.
- माँ बाप को बेटी की आगे की उच्च शिक्षा की बजाय उसकी शादी की चिंता ज़्यादा रहती है । वह पैसा बचत करते है यह लक्ष्य ले कर की शादी अच्छे घर में हो।
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माँ की पहली चिंता यह नहीं रहती की बेटी पढ़ लिख कर अपने पैर पर खड़ी हो ,नौकरी करे । उनकी पहली और आख़िरी चिंता होती है की शादी करें। इसलिए उच्च शिक्षा के बारे में सोचते ही नहीं ।
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कोचिंग के लिए लड़कियों को भेजने में कंजूसी पढ़ने में कमज़ोर बेटे को तो बड़ी फ़ीस भरकर अच्छे और महँगे कोचिंग करवा देंगे पर लड़कियों को नहीं । अगर बजट कम है तो बेटे और बेटी में से किसी एक को कोचिंग करवाना है तो उसे नहीं चुनेंगे जो पढ़ने में तेज़ है बल्कि बेटा और बेटी में सिर्फ़ बेटे को चुनेंगे। तो कैसे दिखाई देंगी अच्छे पदों पर लड़कियाँ।
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हमारे देश और समाज का माहौल ऐसा है की आज भी लड़कियों को दूसरे शहरों में पढ़ने भेजने के लिए परहेज़ करते है । कारण बदनामी का डर लड़की बाहर जा कर अकेली रहेगी लोग क्या कहेंगे । पर लड़कों को इस मामले में छूट है ।लड़कीयों के चरित्र को लेकर सामंतवादी सोच हावी होने के कारण समाज के लोग लड़की को शादी होने तक अपनी निगरानी में ही रखना चाहते हैं.
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लड़कियों का आत्मविश्वास घर में ही तोड़ दिया जाता है ,बचपन से ही पराया धन , या शादी के बाद दूसरे घर जाना है , ससुराल में सेवा करने की ट्रेनिंग शुरू हो जाती है ,लड़कियों का आत्मविश्वास बढ़ाते ही नहीं । यह नहीं सोचते की यह अपने पैर पर खड़ी होगी तो सिर्फ़ परिवार ही नहीं देश और समाज का नाम रौशन करेगी।इसके लिए बचपन से सिर्फ़ बेटों का आत्मविश्वास बढ़ाया जाता है।
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बेटी के पैदा होते ही शादी के लिए पैसे जमा करने लगते है । शादी में 10 – 15 लाख ख़र्च कर देंगे ।पर पढ़ाई के लिए 8-10 लाख नहीं ख़र्च करेंगे । अगर 10-15 लाख लड़कियों की शिक्षा पर ख़र्च करें तो वह न सिर्फ़ अपने पैर पर खड़ी होंगी बल्कि ज़्यादाख़ुश रहेगी औरमाँ बाप भी टेंशन फ़्री रहेंगे । पर नहीं उन्हें तो लगता है की बस शादी कर दो फिर फ़्री । पर ऐसा होता नहीं । जब तक लड़कियाँ ख़ुद के पैर पर नहीं खड़ी होती माँ बाप फ़्री नहीं हो पाते । जब पढ़ाने से ज़्यादा शादी की चिंता रहेगी तो कैसे दिखेंगे लड़कियाँ आगे ।
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लड़कियों का पीछे रहने के धार्मिक सोच भी बहुत बड़ा कारण है । हमारे धर्म में लड़कियों को हमेशा लड़कों से कमतर ही माना जाता है । हज़ारों सालों से जो मानसिकता चली आ रही है लड़कियों के बारे में हमारे समाज के लोग उससे बाहर ही नहीं आ पाते ।
एक कारण यह भी है की जिन लोगों ने महिलाओं की समानता के लिए आंदोलन किए अपना जीवन न्योछावर कर दिए ऐसे महात्मा फुले , सावित्री बाई फुले और बाबा साहेब जैसे लोगों को आज भी देश की अधिकतर जनता पूरी तरह से जानती नहीं । मनुवादी ताकते आज़ादी के बाद से ही पूरी कोशिश कर रहे है की लोग इन महापुरुषों और उनके विचारों से दूर रहे ।जब तक इन महापुरुषों के विचारों से दूरी बनी रहेगी लड़कियों की स्थिति ऐसे ही रहेगी ।
कूछ बदलाव शुरू हुए है हमारे देश में ख़ास कर के उन परिवारों और समाज में जहाँ बुद्ध , कबीर,महात्मा फुले ,सावित्री माई और बाबा साहेब के विचारों को आत्मसात किया है ।
कारण और भी है पर हमें यह ज़रूर सोचना होगा की आख़िर क्यों टॉपर बेटियाँ टॉप पर नहीं पहुँच पाती.
राजेश पासी
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। कुछ माता पिता के लिए लड़कियों का पढ़ना-लिखना सिर्फ एक शौक भर होता है। मुख्य उद्देश्य तो शादी करके विदा करना भर होता है।
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सही बात है। लड़कियों की शादी की चिंता पेरेंट्स को ज्यादा होती है।
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