शहीद बौद्ध भिक्खू की याद में सम्राट अशोक ने शुरू कराया था दीपदानोत्सव

दीपावली ” बौद्धों का त्योहार है और हमें इसे जरूर मनाना चाहिए , परन्तु जिनके कारण हमें धन और शिक्षा की पहचान हुई, उनकी फ़ोटो , मूर्ति , चिन्ह वगैरह रखकर अब की शुरुआत से हमें बुद्ध बंदना या त्रिशरण से अपना त्योहार दीपमाला सहित मनाना चाहिए ।

हमारे सारे त्योहार ब्राह्मणों द्वाराबदल दिए गए हैं , जिन्हें हमें अंधविश्वास को मिटाकर सही ज्ञान मार्ग से दीपावली का आरम्भ करना होगा । हमारा त्योहार कैसे ?ढाई हज़ार साल पहले बुद्धत्व प्राप्त कर तथागत बुद्ध जब कपिलबस्तु पधारे थे ! कपिलवस्तु के नगरवासियों ने जब अपने प्रिय राजकुमार सिद्धार्थ का ‘ सम्यक संबुद्ध ‘ रूप देखा , तो वह भावविभोर हो उठे । पूरे कपिलवस्तु को दीपों से सजाकर अपनी प्रसन्ता व्यक्त की , बौद्ध दीपावली को ‘ दीपदान उत्सब ‘ के नाम से भी जाना जाता है ।

इसका स्पष्ट उल्लेख बौद्ध ग्रन्थ ‘ महावंश ‘ में मिलता है ! किंतु ‘ दीपदानोत्सव ‘ विधिवत रूप से प्रतिवर्ष 258 ई. पूर्व से मनाना प्रारम्भ किया गया ! यह काल था ‘ मौर्य वंश ‘ के चक्रवर्ती सम्राट अशोक का , कलिंग युद्ध की त्रासदी के बाद सम्राट अशोक ने बुद्धत्व की शरण ली ।

अपने सपूर्ण सम्राज्य में बौद्ध धम्म के प्रचार – प्रसार के लिए 84000हज़ार बौद्ध स्मारक बनवाए । उन सभी स्मारकों का उद्घाटन कार्तिक अमावश्या ( अक्टूबर – नवंबर ) की काली रात में असंख्य दीप जलाकर किया गया , और तभी से यह ‘ दीपदानोत्सव ‘ केरूप में प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा ।

ध्यान दें , इन 84000 बौद्ध स्मारकों का उदघाटन अमावश्या की रात को ही क्यों किया गया ? इसके पीछे एक महत्वपूर्ण घटना है ! यूँ तो तथागत के कई महान शिष्य हुए हैं । पर उनमें से तथागत बुद्ध का एक सबसे प्रिय शिष्य , जो उनका वायां हाथ कहा जाता था ।

उसका नाम था ‘ भिक्खु मौद्गल्यायन ‘ बुद्ध से मिलने के बाद मौद्गल्यायन ने अपना सम्पूर्ण जीवन बुद्धत्व के प्रचार व प्रसार में लगा दिया । बड़े उत्साह और लगन से उसने बुद्ध के उपदेशों को , उनकी शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाया । इस कारण बुद्ध के धम्म का प्रभाव बड़ी ही तीव्र गति से चारों और फैलने लगा !लोग अंधश्रद्धा और अंधविश्वास को छोड़कर बुद्ध के दिखाए मार्ग को अपनाने लगे ।

ऐसी स्थिति में कुटिल और पाखंडी धर्मोपदेशियों का वर्चस्व. खतरे में पड़ गया । उनके चेलों की संख्या में कमी होने लगी । उनका मान सम्मान घटने लगा । इसलिए कार्तिक अमावश्या (अक्टूबर-नवम्बर) की अंधेरी रात में मौका पाकर उन्होंने भिक्खु मौद्गल्यायन की षड्यंत्रपूर्ण हत्या कर डाली ।

तब से अमावश्या की वह काली रात बौद्ध भिक्खुओं के लिए मातम का प्रतीक बन गई । तथागत बुद्ध के धरा धाम से जाने के कई सौ वर्षों के बाद सम्राट अशोक ने बुद्धत्व की शरण ली । जब उन्हें इस घटना के बारे में पता लगा , तब उन्होंने उसे एक नया ही दृष्टिकोण प्रदान किया ।

उन्होंने बौद्ध धम्म के सभी अनुयाइयों के समक्ष भिक्खु ‘ मौद्गल्यायन ‘ की मृत्यु पर शोक मनाने की जगह उत्सव मनाने का प्रस्ताव रखा । सम्राट अशोक गर्व भरे स्वर में बोले – ‘ शोक और मातम तो उनके लिए मनाया जाता है , जो जीवन की बाज़ी हार कर जाते हैं । पर , महामौद्गल्यायन तो भगवान बुद्ध के ह्रदय में राज करके गए हैं । वे तो बुद्ध के दिखाए इस सत्य के मार्ग पर शहीद हुए हैं, और शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है ।

उनकी वीरगति पर तो उत्सव मनाए जाते हैं । तब से हर कार्तिक अमावश्या पर बौद्ध भिक्खु ‘मौद्गल्यायन ‘ को श्रद्धा सुमन भेंट करने लगे । सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए 84000 बौद्ध स्मारकों को उनकी याद में दीपों से रोशनाया जाने लगा । उस दिन को दीपदानोत्सव ( दिपावली ) के रूप में बड़े ही हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाने लगा ।

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