मनोविज्ञान कहता है कि किसी को दबा कर रखना हो तो उसकी कमजोरी को बार बार दोहराओ पर कमजोरी दूर करने का उपाय मत बताओ …/ ऐसा ही भारत में “दलित” शब्द को सवर्णों द्वारा भारत की अनुसूचित जातियों पर थोपा गया है। उसे इस कदर प्रचारित किया गया कि वह आज दलितों के स्वाभिमान को नीचे गिरा दिया है। जैसे गांव के किसी कुत्ते को मारना होता है गाँव के चलाक वाले उसे पहले पागल घोषित करते है फिर मार देते है । ताकि लोग उसे नोटिस न करें। ठीक भारत की सवर्ण जातियां बहुजन समाज के लोगो के अंदर स्वाभिमान को मारने के लिए तरह तरह के हतकण्डे अपनाते रहते है । बचपन में संयोग से हुई गलतियों को हमेशा याद दिलाते रहते है। कोई किसी के खेत में मटर की एक फली भी तोडा होता है तो उसे चोर चोर कहकर बदनाम करते रहते है। ताक़ि वह खुद चोर समझता रहे और उसके अंदर का स्वाभिमान गिरा रहे। उसके द्वारा बेहतर किये गए कार्यो की सराहना सामाजिक रूप से कभी नहीं करते ।
बाबा साहब के कहने पर जब अंग्रेजो ने लिट्टन कमेटी गठित कर ऐसे शोषित-पीड़ित अछूत लोगो की अनुसूची बनवाई जो सामाजिक रूप से पिछड़े थे उन्हें वे “अनुसूचित वर्ग” में रखा। लेकिन इस शोषित पीड़ित जनता कों “दलित” नहीं कहा क्योकि वे जानते थे कि दलित कहने पर इनका स्वाभिमान और मर जाएगा। बाद में सवर्णों ने दलित शब्द को इतना प्रचारित किया की दलित शब्द वैश्विक हो गया ।परंतु इन जातियों का वैश्वीकरण नहीं हुवा जो इनके अंदर समाहित हुई। लेकिंन उनका स्वाभिमान जरूर गिरा। क्योकि दलितों की हत्या लूट बलात्कार और पिटाई को मिडिया खूब प्रचारित करती है ।
लेकिन कंही अगर कोई स्वाभिमान के लिए लड़ा हो .. उसे मिडिया नहीं दिखती। क्योकि उसे देंखकर और दलित लड़ेंगे तो एक क्रांति हो जायेगी। उस क्रान्ति को रोकने के लिए ब्रम्हाणी मिडिया केवल पिटते हुए दलितों को दिखती है। ताकि दलित खुद को पीटने वाला मान ले।
इस मनोविज्ञान को समझना होगा। और देश में स्वाभिमान से जीने के लिए” दलित “शब्द को रिजेक्ट करना होगा।
-अजय प्रकाश सरोज