मेडिकल में प्रवेश करने वाले अधिकांश छात्र मुझे मध्यम वर्ग उच्च मध्यम वर्ग अथवा अमीर घरों के ही मिले। ख़ासकर अनारक्षित वर्ग में।बहुत से चिकित्सक 200 से 500 रूपये की जांचें सामान्यतः लिख दिया करते है
बहुत सारे केसेस में दरअसल इन जांचों के बिना भी इलाज लगभग वही होता जो जांच रिपॉर्ट के आने के बाद। अर्थात चिकित्सक का क्लीनिकल एग्जामिनेशन ही 90 प्रतिशत से अधिक केसेस में पर्याप्त होता।।।।
किंतु फिर भी वे जांचें इसलिए लिखते क्योंकि थ्योरी के हिसाब से संभावित बीमारियों के इलाज में ये जांचें किताबों में लिखी होतीं । इस लिहाज से जांचें लिख वे गलत नहीं होते। किंतु मेडिकल की किताबों में मरीज़ की आर्थिक स्थिति के अनुसार इलाज में तार्किक बदलाव का ज़िक्र नहीं होता है। क्योंकि किताबें आदर्श परिस्थितियाँ मान कर लिखी जाती हैं।
लेकिन क्योंकि उन 200 से 500 रूपये की जांच के बिना भी काम आराम से चल सकता है तब मैंने कुछ चिकित्सकों से पूछा कि आप क्यों ये जांचें लिख देते हो। 200 से 500 रूपये की।
तब मुझे पता चला उनमें से अधिकांश इसे बड़ी छोटी रकम माने हुए थे। अमीरी में बीता बचपन अनेकों बार 200 रूपये दिन भर की कमाई है वह भी पूरे परिवार के चलाने लिए समझ नहीं पाता,,,, कभी कभी तो ये भी नही कमा पाते ये गरीब लोग। पिछले दिन की कमाई से भी कुछ नहीं बच पाता है इन परिवारों के पास।
उन्हें शायद बीमार होने पर पिता की आँखों में उत्पन्न हताशा का अंदाज़ा नही होता ,,,,उन पिता के आंसुओ का दर्द नही पता रहता है जो नंगे पाँव अस्पताल के चक्कर लगाते है , क्योकि शायद कभी महसूस नही किये रहते
ऐसा नहीं कि अमीरी में बीते बचपन वालों में संवेदनशीलता नहीं होती। उनमें से बहुत से चिकित्सक गरीबों का मुफ्त इलाज भी करते हैं किंतु 5000 से 8000 रूपये महीना कमाने वाले बाइक पर चलते पिता के अभाव और संघर्ष से वे अनभिज्ञ होते हैं। बहुत ग़रीबी तो सभी को दिख ज़ातीं है और दया भाव सभी में जगाती है किंतु यह लोन पर बाइक वाला गरीबी के मुहाने पर खड़ा वर्ग दिख नहीं पाता।
कभी कभी मैं सोचता हूँ क्या देश की आर्थिक नीति निर्धारण में लगे ब्यूरोक्रेट एवं नेताओँ, पेट्रोलियम मंत्री, वित्त मंत्री इत्यादि के साथ भी यही होता होगा? क्या अमीर पारिवारिक परिवेश गरीबों और मध्यमवर्ग के बीच झूलते करोड़ों परिवारों के संघर्षों से उन्हें अनभिज्ञ बनाता है?
ज़्यादातर शहरों में इन परिवारों को शहर के बाहरी हिस्से में रहना होता है जिनमें किराया कम लगता है। अपने कार्य के लिए ये बाइक, स्कूटी से 10 12 किलोमीटर दूर जाते हैं। पेटोल bmw कार वाले और इन्हें एक ही रेट पर मिलता है। 10 से 12 घंटे की नौकरी करते ये लोग थका देने वाले भीड़ भरे और धीमे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग व्ययव्हरिक नहीं पाते।
क्या गरीब घर से पढ़ कर उच्च शिक्षित बने नीति निर्धारक या चिकित्सक ग़रीब मध्य वर्ग के लिए बेहतर निर्णय लेने वाले होंगे?….
पता नहीं।पर उम्मीद बहुत कम दिखती है मुझे।
(डॉ रमेश रावत एमबीबीएस )