मेडिकल कैम्प की असलियत !


आपने निःशुल्क मेडिकल कैम्प्स बहुत सारे देखे होंगे अपने शहर में। पिछले कुछ वर्षों में इनमें बढ़ोतरी भी देखी होगी।मैंने भी आरंभ में किये हैं। कुछ संस्थाओं के लिए,अस्पतालों के लिए,कुछ राजनेता अपने जन्मदिन पर इन्हें आयोजित करवा कर अपने लोगों को एक तरह की गिफ्ट देते हैं।

इन निःशुल्क स्वास्थ्य कैम्प्स का विज्ञापन अख़बार,लोकल टीवी ,पम्प्लेट्स इत्यादि द्वारा किया जाता है

आमतौर पर इनमें डॉक्टर का कंसल्टेशन निःशुल्क होता है, कुछ सैंपल की दवाएं भी मुफ्त होती हैं। और कुछ जांचें काफी डिस्काउंट के अनुसार हो ज़ातीं हैं।

ग़रीब मरीजों की बहुतायत संख्या वाले देश में यह सुनना बहुत अच्छा लगता है इस तरह के शिविर में उनका निःशुल्क इलाज़ हुआ।

अब आते हैं इसके सही विश्लेषण पर।

तो पहला तो यह है क़ि क्या इन शिविरों के पीछे मूलभावना

मरीजों का भला होता है?

तो उत्तर है बिल्कुल नहीं। मूल भावना आर्गेनाइजर,चाहे वह अस्पताल हो ,चिकित्सक हो कोई संस्था हो या खुद सरकार हो

मूल भावना प्रचार पाना और करना होती है।

विज्ञापनों के माध्यम से ,अखबार की खबर के माध्यम से , उद्घाटन में किसी मंत्री के आगमन से इन कैम्प्स के द्वारा हज़ारों लाखों लोगों तक चिकित्सक,अस्पताल,संस्था अथवा मंत्री का नाम पंहुचाने की कोशिश होती है।

मूल भावना प्रचार की हो तो भी कोई हर्ज नहीं अगर गरीब मरीज़ को फायदा हो।

तो अब करते मरीज के फायदे का विश्लेषण ।

इन शिविरों में आने वाले ज़्यादातर मरीज़ दोबारा डॉक्टर के पास नहीं जाते। न तो इनमें कोई डायग्नोसिस बनती है न ही किसी का ढंग का इलाज होता है। चिकित्सक अपने क्लिनिक या अस्पताल का अगला अपॉइंटमेंट दे देता है फोलोअप विजिट का जिसमे स्वाभाविक तौर पर पैसे लगते हैं।

ज़्यादातर इलाज बिना टालने और संख्या बढ़ाने ,फोटो खिंचवाने होता है।

ऐसे कैंप व्यक्तिगत चिकित्सक ,भी गाँवों,तहसीलों ,जिलों में लगाते हैं अपने क्लिनिक और नाम के प्रचार के लिए।

जिसने भी स्वास्थ्य शिविर के इस काम की शुरुआत की होगी वह बड़ा मार्केटिंग दिमाग रहा होगा फिर इस कांसेप्ट की सफलता देख देश भर के अस्पतालों,चिकित्सकों,सरकारों,संस्थाओं ने इसे अपना लिया

वैसे भारत में में मार्केटिंग के लिए अपना नाम चमकाने के लिए बड़े बड़े होर्डिंग्स और अखवारों में विज्ञापनों में देवी जागरण से लेकर विभिन्न धार्मिक,आध्यात्मिक, नदियों इत्यादि की परिक्रमा को भी इसी मूल भावना के इस्तेमाल के रूप में देखता हूँ।

जिनमे आयोजक की तस्वीर देवी की तस्वीर से भी बड़ी होती है।

कुछ संस्थाएं सामाजिक कार्य के वाले चेहरे को लगाकर किसी राजनीतिज्ञ को चमका रही होती हैं।

धीमे धीमे भारतीय मस्तिष्क को वह चिकित्सक, अस्पताल,मंत्री, नया राजनीतिक चेहरा, संस्था बेहद प्रसिद्द लगने लगती है।

मरीज़ वहीँ रह जाता है, देवी वहीं रह ज़ातीं हैं,नदियां वहीं रह जाती हैं।।।।।।फायदा लेने वाले फायदा लेते रहते है । – डा० रमेश रावत

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